दसो दिशाओं के संरक्षक उपर्युक्त दशनामी संन्यासियों की संगठन शक्ति अक्षुण्ण बनी रहे और कालान्तर में उनके संगठन में किसी पृथकतावादी तत्त्व का समावेश न होने पाये, इसके लिये उन्होंने दशनाम संन्यासियों को निम्न रुप से एक ही शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में प्रतिपादित किया-
” ब्रह्मरन्ध्रे पुरी चैव ललाटे चैव भारती जिह्वाग्रे सरस्वती चैव बाहौ च गिरिपर्वतौ।
कुक्षौ तु सागरश्चैव वनारण्यौ च जंघयोःपादोः तीर्थश्रमौ चैव दशनाम प्रकीर्तिताः।”